गाँव की चाँदनी रात
चाँदनी रात, चाँद का प्रकाश
थीं तारों की बारात
खुला आसमान जैसे
छित्तिज के पार तक जैसे
बड़ा सा आँगन का अहसास
थीं तारों की बारात या,
दूध की नदियाँ बहतीं हों जैसे
या आकाश में गंगा
उतरीं हो वैसे
उसी में भटकना मेरा,
मिलती मन को सुकून
या ढूँढती थीं कुछ यूँही?
शायद कोई प्रेम की मोती!!
तभी यूँ बादल का आना
मद होश मगन, ठंढी हवा का स्पर्श
जैसे सब सखा मिल रहे हों।
सब फ़ुरसत में, आएँ अभी – अभी हों
इस सुंदर सुखद अहसास से
जैसे चाँद खिलखिला रहे हों।
आँखें, अपलक देखकर नज़ारे
झपकना हीं भूल गए हों।
निंदिया रानी प्यार से बोली,
फिर आऊँगी अभी ईधर,
कहकर चाँद के पार गयी वो
ना जाने किधर?
इस क़दर खो गयी मैं
इस चाँदनी रात के नज़ारों में,
तारों की झुरमुट में
मैं सोयी थी शायद?
आँखें खुलीं रहीं,
शुबह ओस की फुहारों तक।
यूँही पहुँच गयी ना जाने कब?
सुप्रभात मंजूषा बेला तक।
~ Manjusha Jha
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