Poem: Manjusha

सूरज मंजूषा

सूरज मंजूषा
सूरज की लालिमा,
कुछ याद दिलाती है मुझे!
मेरे बचपन में पहुँचाती है
मेरे घर के हर खिरक़ी से
दिखते हैं
सूरज की किरणें अनूप
छण में बदलते
उनके होते हैं कई रूप
सुप्रभात की
सुंदर बेला में
अरुणिमा किरण के
मधुर मेला में
उषा के सुनहले
रश्मियों से
गुथे कभी
पर उससे भी पहले
उनके होते हैं
एक और
मनोहर रूप
नन्हा -नन्हा लाल – लाल
आग की नन्ही चिंगारी सी
या माथे की विंदिया प्यारी सी
जहाँ किरणें भी ना
नज़र आतीं
वह कोमल कली
पिटारी सी
रहतें हैं तब
“मंजूषा “ बेला में।
सूरज का इस बेला से
निकलना अगली सुबह
फिर वहीं पर मिलना
जैसे सिखा दिया
मुझको किसी से किए
वादे को निभाना
कर्म अपना करते रहना
सत्यपथ पर चलते रहना
लोग चाहे
जिस रूप को चाहे
पर तुम अपना
रूप ना खोना
अपना कर्तव्य
निभाना तुम
सूरज के किरणों
के जैसे
अपना प्रकाश
फैलाना तुम
बस यही सिखलाता
सूरज कर्म पथ पर
अडिग रहना तुम।

~ Manjusha Jha

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